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बंगाल में तृणमूल द्वारा रामनवमी का आयोजन भाजपा की नैतिक जीत है!

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पश्चिम बंगाल में रामनवमी का आयोजन संघ परिवार लंबे समय से जोर-शोर से करता रहा है। विश्व हिन्दू परिषद से लेकर बजरंग दल तक इस अवसर पर जुलूस निकालते रहे हैं। साथ ही शोभायात्राओं का भी आयोजन होता रहा है। हालांकि, इस साल रामनवमी के ये आयोजन महज धार्मिक न रहकर राजनीतिक आयोजनों में तब्दील हो गए और इसका श्रेय तृणमूल कांग्रेस को जाता है। दरअसल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब रामनवमी के आयोजनों में संघ परिवार और खासकर भारतीय जनता पार्टी से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। संघ परिवार और भाजपा के रामनवमी आयोजनों के जवाब में तृणमूल कांग्रेस ने भी बड़े पैमाने पर रामनवमी आयोजनों में भाग लिया और भगवा पताके लहराए हैं।

 

 

पश्चिम बंगाल की सत्ता से वाममोर्चा को हटाने के लिए ममता बनर्जी ने लंबी लड़ाई लड़ी है। उन्होंने परिवर्तन का नारा दिया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को सत्ता से निकाल बाहर किया। हालांकि, ममता के दूसरे कार्यकाल में आने के बावजूद परिवर्तन धरातल पर दिखता नहीं है। चाहे उद्योगों का विरोध हो या फिर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति, ममता उसे एजेन्डे पर चलती रही हैं जिस पर वामपंथी सरकार चला करती थी। बंगाल के लोगों को वस्तुतः परिवर्तन की तलाश है और भारतीय जनता पार्टी ने मौका देखकर खुद को विकल्प के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया है। जमीनी स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार काम कर रहा है। इसका असर न केवल ग्रामीण, बल्कि बूथ स्तर तक देखने को मिल रहा है। संघ परिवार के काम का नतीजा है कि हाल ही में कूचबिहार के उपचुनाव में भाजपा को 28 फीसदी वोट मिले थे।

ममता सशंकित हैं और उनकी सिरदर्दी की वजह भी है। पहले असम और फिर त्रिपुरा सरीखे पूर्वोत्तर के राज्यों में सरकार बनाकर भारतीय जनता पार्टी अगर पश्चिम बंगाल पर दावेदारी पेश कर रही है तो सत्तारूढ़ तृणमूल को चेतना ही चाहिए।

 

 

पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नीत वाममोर्चा लगातार अपनी साख खोता जा रहा है। त्रिपुरा में मिली करारी हार के बाद अब राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि बंगाल में वामपंथियों की वापसी असंभव है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी की दावेदारी मजबूत होती है।

भारतीय जनता पार्टी को यह बेहतर तरीके से पता है कि ममता को हराने के लिए विपक्षी वोटों को एकजुट करना बेहद जरूरी है। भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल में त्रिपुरा की तरह रणनीति बनाना चाहती है। त्रिपुरा में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी के 35 फीसदी वोट शेयर को अपने पाले में कर लिया और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी महज 1.8 फीसदी वोटों में सिमट कर रह गई।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि रामनवमी के उत्सव की वजह से बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता में उछाल आया है। रामनवमी के आयोजनों के माध्यम से भाजपा ने बंगाल के हिन्दुओं को यह जताने की कोशिश की है कि यह पार्टी हिन्दुओं के हितों की रक्षा करेगी। भाजपा को इस कैम्पेन में इसलिए भी बढ़त मिली है, क्योंकि मुसलमानों के हित में एक के बाद एक फैसलों की वजह से ममता की छवि हिन्दू विरोधी बन गई है।

 

 

पश्चिम बंगाल में करीब 67 फीसदी हिन्दू वोटर्स हैं। करीब 30 फीसदी मुसलमानों का वोट बटोरने वाली ममता बनर्जी अपने तरफ से पुरजोर कोशिश कर रही हैं कि तृणमूल का हिन्दू वोट बैंक पार्टी के साथ बना रहे। ममता भली-भांति जानती हैं कि सिर्फ मुसलमानों के वोट से वह सत्ता में बनी नहीं रह सकती हैं। भगवा खेमे की बंगाल में लगातार बढ़त के बीच ममता ने भी हिन्दुओं के करीब जाने की मुहिम छेड़ी है।

इस साल के जनवरी महीने में राज्य सरकार ने बीरभूम जिले में ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें शामिल होने वाले ब्राह्मणों को भगवद् गीता की प्रतियां वितरित की गईं थीं।

 

 

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि बीरभूम में भाजपा तेजी से अपनी बढ़त बना रही है, और यही वजह है कि ब्राह्मण सम्मेलन के लिए ममता सरकार ने बीरभूम जिले को चुना। यहां के ब्राह्मणों को सरकार द्वारा गाय दान किए जाने की भी सूचना है।

फिलहाल, रामनवमी के आयोजनों में तृणमूल कांग्रेस के कूदने से इतना तो साफ है कि ममता और भगवा खेमें के बीच चल रही रस्साकसी का पहला राउंड भाजपा जीत गई है। स्थानीय अखबारों में की रिपोर्ट्स से साफ है कि तृणमूल ने रामनवमी का एजेन्डा संघ परिवार से छीनने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिली है। तृणमूल की रामनवमी शोभायात्राओं में शामिल पार्टी कैडरों न पार्टी का झंडा फेंक जमकर भगवा लहराए। साथ ही इन रैलियों में लोगों की तादाद बेहद कम थी।

इतना तो कहा जा सकता है कि रामनवमी मनाने के लिए ममता का सामने आना भाजपा की नैतिक जीत है, जो किसी भी तरह वर्ष 2021 में राज्य विधानसभा चुनावों के बाद पश्चिम बंगाल में सत्तानशीं होना चाहती है।


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